This Tagore essay on the cult of the nation could have been written in 2016 (and not 99 years ago)!!
"When this idea of the Nation tries to pass off the cult of collective selfishness as a moral duty, it attacks the very vitals of humanity."
टैगोर की "राष्ट्र का चरमपंथ" पर करी गयी यह टिपण्णी शायद 2016 में लिखी गयी हो, न की 99 वर्ष पूर्व!!
"जब राष्ट्र का विचार सामूहिक स्वार्थ के अनुयायियों द्वारा एक नैतिक ज़िम्मेदारी की तरह प्रचारित हो, तब वह मानवता की जड़ों पर सीधा हमला होता है"
राष्ट्र का विचार और राष्ट्रीयता आज लोगों के लिए पूर्ण-कालिक व्यवसाय बन गया है। और यही विचार और उससे उत्पन्न भेड़चाल जैसे राष्ट्रवादियों का पंथ इन सबके लिए भी सबसे बड़ा ख़तरा बन के उभर रहा है , क्योंकि इसमें इनको शुरूआती तौर पे मिली अकल्पनीय सफलता अब इनके आते चढ़ के बोल रही है और इनको दिनोंदिन और अधीर बना रही है की यह ज़्यादा से ज़्यादा तथाकथित उच्च आदर्शों (Higher Ideals) पर अपना आधिपत्य जमा सकें। जैसे जैसे इनको मिलने वाली सफलताएँ बड़ी होती जा रही हैं, उसी अनुपात में हितों-का-टकराव और ईर्ष्या और नफरत/द्वेष भी नागरिकों के मन में हैं। इससे किनारे बैठे हुए लोग, जो की अभी तक इस कठोर राष्ट्रवाद की गिरफ्त में नहीं आये हैं, उनके मन भी राष्ट्र की कृत्रिम बेड़ियों में जकड़े जा रहे हैं। राष्ट्रवाद के उदय से सिर्फ एक चीज़ साबित हो रही है - मानव ही स्वयं का सबसे बड़ा शत्रु और ख़तरा है। अतः राष्ट्रवादियों में सदा ही उपस्थित हड़बड़ाहट और ख़लबली और आतंक से इसी राष्ट्रवाद की अतिवादी सोच और विचारधारा की पुष्टि और पोषण होता है।
भीड़ एक अंधी और भौंडी और विद्रूप ताकत है
भाप या वाष्प की तरह, भीड़ की ऊर्जा का प्रयोग एक अतुलनीय शक्ति के प्रयोग और प्रदर्शन के लिए करा जा सकता है। इसलिए, हमारे कर्ता-धर्ता या शासक, जो की लालच और डर के कारण अपने शासन की जनता को इस विशाल इंजन/चूल्हे में झोंके जाने वाली जलावन लकड़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि उनके स्वार्थ की सिद्धि हो सके। वे इसे अपना अधिकार और कर्त्तव्य (या राज-धर्म) मानते हैं की उनके नागरिक हर वक़्त आतंक के साये में सांस लें, सिर्फ अपनी (या एक बहुत ही संकीर्ण समूह की) क़ौम/जाती/वर्ण को सर्वोत्तम मानें, एवं अन्य/दूसरे के प्रति मन में घृणा व प्रतिहिंसा पालें।
अख़बार, पाठ्य-पुस्तकें, और तो और धार्मिक मंच तक इस घिनौने कार्य के लिए इस्तेमाल करे जाते हैं; और जो भी इस अंध-श्रद्धा और कुटिल विचारधारा के विरोध करता है, इसके खिलाफ आवाज़ उठता है उसको क़ानून का दुरुपयोग करके फँसाया और पीड़ित करा जाता है, या फिर सामाजिक रूप से बहिष्कृत करा जाता है। एक व्यक्ति के तौर पे हर कोई सही-ग़लत के भेद को समझता है, चाहे वो कितना भी भावुक क्यों न हो रहा हो; पर जैसे ही यह व्यक्ति किसी भीड़ का हिस्सा बनता है, उसकी वैयक्तिक सोच और चेतना लुप्त हो जाती है, बचता है तो सिर्फ भीड़ का उन्माद! उसके नैतिक मूल्य ना पहचानने की हद तक धुँधला जाते हैं। इंसानियत का इस तरह भीड़ में खो जाना, कुचला जाना, एक उन्मादी और अनियंत्रित पे शासक वर्ग के लिए बहुत ही मुफ़ीद है। ये जो भीड़ की मानसिकता होती है वह आज भी आदिम, अपरिपक्कव और अशिष्ट है। इसलिए, "राष्ट्र" और राष्ट्रवादी सदा ही इस आसुरी और अंधी शक्ति का दुरुपयोग करने के चेष्टा में लगे रहते हैं।
संकटकाल में लोगों की स्वयं (खुद के जैसे अन्य) को संरक्षित करने की प्रवृत्ति और प्रत्याशा खूब ही उभर कर सामने आती है। इसी दौरान, परिस्तिथिजन्य कारणों से "एक" होने की भावना भी प्रबल होती है - ख़ास तौर पर उन गुटों में जो भाषायी/सांस्कृतिक/धार्मिक/भौगोलिक या अन्य साम्य रखते हैं। पर अति-राष्ट्रवाद के सिद्धांतों में इस प्रवृत्ति को कृत्रिम रूप से हर वक्त न सिर्फ जीवित रखा जाता है, बल्कि भड़काया जाता है। एक व्यक्ति को अपने घर पे हमला होने की स्तिथि में (चोरी या डकैती के समय) क़ानून को अपने हाथ में लेने के लिए क्षमा कर सकते हैं। पर अगर वो हर वक्त इसी मानसिकता में रहे की उसके घर के सामने से गुज़रने वाला हर व्यक्ति संदिग्ध और हमलावर हो सकता है तो ऐसे आदमी और उसके व्यवहार को हम संतुलित और सामान्य नहीं कह सकते। यह एक प्रकार का पागलपन (Paranoia) है।
इस स्वयं के प्रति अति संकोची मानसिक उन्माद की स्तिथि को वह व्यक्ति गौरव का विषय नहीं मान सकता; और संतुलित व स्वस्थ तो कतई नहीं। इसी प्रकार, अति राष्ट्रवाद का ज्वर एक देश के लिए और उसके नागरिकों के लिए भी हानिकारक है - तात्कालिक फायदे के लिए हम शाश्वत और चिर की बलि चढ़ा देते हैं।
जब नागरिकों एक पूरा समूह अपने को एक संकीर्ण और तात्कालिक उद्देश्य के लिए होम करने को लालायित हो उठता है और उसके लिए प्रशिक्षित - मानसिक व शारीरिक रूप से - होना चालु करता है तो, यह उनके सामूहिक हित में होता है की वे उस उद्देश्य के लिए पूर्ण-समर्पण दिखाएं और सिर्फ उसकी ही जयकार करें। किसी भी प्रकार का अन्य और विरोधाभासी विचार उनके लिए ख़ारिज करने योग्य होता है। कोई द्वन्द नहीं, कोई विमर्श नहीं, कोई सवाल नहीं।
राष्ट्रवाद पूरे देश के नागरिकों को इसी प्रकार की संकीर्ण मानसिकता में प्रशिक्षण देने की कुत्सित नीति है; और जब ये नागरिक इस मानसिकता के चंगुल में जकड़े जा चुके होते हैं तब, यही राष्ट्रवाद उन्हें नैतिक पतन और चेतना के स्तर पे अंधता की तरफ ले जाता है। हम सिर्फ यह अडिग विशवास रख सकते की इस समय बहने वाली राष्ट्रवाद की तेज़ आँधियाँ, अपने पूरे तेज और स्वार्थ के बावजूद भी, एक क्षणिक घटना ही साबित होंगीं - यह शाश्वत और कालातीत नहीं बन पायेंगीं। और इस बुलबुले को सनातन मान कर इसको सहेजने के लिए हर प्रकार का जतन करने वाले अपने को आने वाले स्वतंत्र और विचारों से परिपूर्ण कल में ढाल नहीं पाएंगे और हाशिये से भी ग़ायब हो जाएँगे।
अति-राष्ट्रवाद की अनियंत्रित बढ़ोतरी अनजाने में ही मानवता के नैतिक मूल को फिर से परिभाषित कर रही है। एक सामजिक व्यष्टि का आदर्श मंत्र परमार्थ और बेग़रज़ी होते हैं। पर एक राष्ट्र का नैतिक मंत्र, एक स्वार्थी और व्यापारिक संस्थान की तरह ही, सिर्फ खुद का भला और खुद की जय ही होता है। यही कारण है की एक व्यक्ति के स्तर पे जिस स्वार्थ की भावना को निकृष्ट मान कर त्याज्य माना जाता है, राष्ट्र के स्तर पे उसी स्वार्थपरायणता को गले लगा कर पूज्य बना लिया जाता है। इस कारण से सामूहिक नैतिक अंधता और पतन होने लगता है और व्यष्टि-धर्म और राष्ट्र-धर्म में टकराव की स्तिथितियाँ पैदा होने लगती हैं।
एक उदाहरण के तौर पे, ईसाइयत के बारे में प्रचलित बड़े बड़े दावों, की यह अन्य धर्मों/पंथों से बेहतर और श्रेष्ठ है, को आजकल काफी मान्यता मिल रही है - सिर्फ इसलिए क्योंकि ईसाई राष्ट्र आज दुनिया के सबसे ज़्यादा भूभाग पे नियंत्रण रखते हैं। यह तो उसी प्रकार हो गया, जैसे की किसी डाकू का पंथ/धर्म इसलिए बेहतर है क्योंकि उसके पास संपत्ति आमजन ज़्यादा है। राष्ट्र अपनी सफल और बड़ी लूटों का जश्न मंदिरों/गिरिजाघरों/मस्जिदों (सार्वजनिक पूजास्थलों ) में मानते हैं। वे भूल जाते हैं की बीहड़ के डकैत और हत्यारे भी अपने कुलदेवता/कुलदेवी को ही अपनी सफलताएं समर्पित कर भोग लगाते हैं!
पर डकैतों को एक बात का यश देना होगा - कम से कम वे अपने कुलदेवता को नृशंसता और विनाश का देवता ही मानते हैं, और इसमें ईमानदारी बरतते हैं की उनका व्यवसाय लूटपाट और हत्या ही है, कोई ढका-छुपा ऊपर से कथित तौर पे सरल और निश्छल दिखने वाला काम नहीं है। डकैतों के कुलदेव उनकी सामूहिक नृशंसता और कठोरता का ही मानव रूपांतरण होता है, इसलिए उनके लिए पूजनीय भी होता है। आज इसी प्रकार आधुनिक पूजास्थलों में स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष और घमंड को राष्ट्र-सम्मान और राष्ट्र-अस्मिता के चश्में से दिखा कर राष्ट्र-रुपी देवता को अर्पित करा जाता है और फिर प्रसाद की तरह बाँटा जाता है।
यह सही है की स्वयं का हित साधना हमेशा ही स्वार्थ की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता; और कई बार तो यह समूह के हिट में भी होता है। इसलिए, राष्ट्रवाद जो की एक राष्ट्र के तमाम नागरिकों की सामूहिक आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को व्यक्त करता है हमेशा ही शर्म का कारण नहीं होता, खासकर जबकि वह अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करे। पर यथार्थ में इतिहास में यही देखने को मिलता है की जो भी राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ, उसने आक्रामक तरीकों से ही अपने स्वार्थों की पूर्ती करी - चाहे व्यापारिक हित हों या भौगोलिक सीमाओं का विस्तार या दोनों ही। और इस प्रकार की आक्रामक सफलताएँ ना सिर्फ व्यक्ति के स्तर पे उसके स्वार्थ को सही ठहराती हैं, बल्कि उनके दिमाग में यह बात भी घर करने लगती है कि राष्ट्र के लिए स्वार्थ न सिर्क एक ज़रुरत है, बल्कि एक गुण भी है। यूरोप में जो लगातार एक राष्ट्र की शक्ति को उत्तरोत्तर बढ़ाने पे ज़ोर दिया जा रहा है वह मानव समाज के लिए भयंकर खतरे का रूप ले रहा है - प्रत्यक्ष टकरावों के रूप में और इस बीमार मानसिकता के बढ़ते प्रभाव के रूप में।
हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि सारे नैतिक नियम-कायदों और आत्म-नियंत्रण के बावजूद मानव-स्वभाव में बुराई के प्रति आग्रह और आकर्षण है!
पर अपने माथे पे लगे कलंक को कलंक मानने के बजाय सारे राष्ट्र और राष्ट्रवादी उसे तिलक की तरह महिमा-मंडित कर रहे हैं और दिनोंदिन और भी विकराल आकार ग्रहण हैं। सारे इतिहास में हमेशा कुछ दुर्बल और दलित रहे हैं और अन्य सबल और शोषक रहे हैं। बुराई पर विजय एक एकाकी घटना नहीं बल्कि सतत चलने वाली प्रक्रिया है, जैसे कि एक मशाल लगातार जल कर अँधेरे को दूर करने का प्रयास करती है।
पहले के कालखंडों में आताताइयों और शोषकों को कभी सफलता मिली तो कभी पराजय का सामना करना पड़ा। इससे ज़्यादा इसके मायने कभी न थे। पर आज जब आधुनिक राष्ट्र, जिसे आज सर्वकालिक मान्यता मिल रही है, सामूहिक स्वार्थ-परायणता के चरमपंथ को राष्ट्रवादियों की नैतिक ज़िम्मेदारी और कर्त्तव्य बताता है, तब न सिर्फ वह हल्ला बोल रहा है, वह मानवता के मूल तत्वों पर हमला बोल रहा है। और यह सब सिर्फ इसलिए मान्यता पा रहा है क्योंकि इस का रूप एक पूरे राष्ट्र या देश का आकार ले चूका है।
अनजाने ही लोगों के अवचेतन में नैतिक और मानवीय मूल्यों के प्रति एक हिकारत का भाव भरा जा रहा है। लोगों को लगातार यह बताया जा रहा है की राष्ट्र हमेशा ही सही होता है, व्यक्तिगत मूल्यों और स्वतंत्रता से भी कहीं ऊपर! व्यक्तिगत नैतिक मूल्यों की अब कोई कदर नहीं बची!
किसी भी बिमारी या रोग का चरम बिंदु तब माना जाता है जब वह मस्तिष्क पर हमला बोल चुके, किसी के सोचने समजह्ने की शक्ति पर असर डालना शुरू कर दे। क्योंकि मस्तिष्क ही अंत तक शरीर के सारे अवयवों पर होने वाले हमलों के प्रति सावचेत करता है और शरीर की रक्षा प्रणाली को लड़ने के निर्देश देता है। यह हमारे देश का मस्तिष्क ज्वर (Brain fever) नहीं तो और क्या है जब स्वार्थ से पराभूत भीड़ तपे हुए चेहरों, बँधी हुई मुठ्ठियों, भींचे हुए जबड़ों, रक्तिम आँखों, आक्रामक बोली और आचरण को धृष्टता न मान कर सामजिक उत्थान का पर्याय माना जाता है? ऐसा लगता है कि इस शरीर की अपने को स्वयं रोग-मुक्त करने की क्षमता का ह्वास हो है। सामजिक सुरक्षा और शक्ति स्व-बलिदान, करुणा और सहयोग की संयुक्त ऊर्जा से ही प्राप्त हो सकती है। "स्व" के ऊपर "पर" को तरजीह देने का भाव ही अपने वातावरण और समाज से एकात्म का सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। इसी "स्व" का स्वार्थ पूर्वक पोषण, शाश्वत नैतिक सत्यों की अवहेलना और संकीर्णता इस शक्ति का रूपांतरण एक उन्माद भरी विध्वंसक शक्ति में कर देता है।
और भी बुरी स्तिथि तब आती है जब, देशभक्ति का चोगा ओढ़ कर, सर दम्भ से उठा कर चलते इन छद्म राष्ट्रवादीयों से कई दूसरे लोग प्रभावित होने लगते हैं। इस तरह इनकी यह पागलपन वाली विक्षिप्तों जैसी बिमारी पूरे विश्व में फ़ैल चुकी है और अब मस्तिष्क ज्वर में तपे लाल चेहरे स्वास्थ्य की निशानी माने जा रहे हैं! इससे, आमतौर पे शांत और निश्छल प्रवृत्ति के लोगों में भी स्पर्धा की भावना घर कर रही है - कि क्यों नहीं इस बेसुध और बेहोश पडोसी की तरह हमारा भी माथा तपा हुआ नहीं है? क्यों नहीं हम भी इनके जितना हुल्लड़ और शोर और दंगा-फ़साद नहीं कर पा रहे? क्यों हम सिर्फ इनके फ़साद से परेशान होने के लिए "अभिशप्त" हैं?
कई बार मुझसे मेरे पाश्चात्य मित्र पूछते हैं कि इस पतन से कैसे बचा जाए और दूसरों को भी कैसे इसमें गिरने से बचाया जाए, जिसका इतना बड़ा, भयंकर, और वीभत्स रूप हो चूका है?
यहाँ तक कि कई बार मुझ पर सिर्फ सिर्फ चेतावनी देने के और कोई सुझाव या उपाय न बताने के भी आरोप लग चुके हैं! जब हम एक सिस्टम या प्रणाली के कारण तकलीफ़ों में पड़ते हैं तो स्वाभाविक तौर पे सोचते हैं की दूसरा सिस्टम या प्रणाली हमारे लिए सुनहरा भविष्य लाएगी। हम इस तथ्य को भुलाने में माहिर हो चुके हैं की, हर प्रणाली, हर सिस्टम, खराब होगी और और ज़्यादा तकलीफ़ लाएगी अगर उसकी जड़ में, उसके मूल में बैठी मानसिकता विकृत और गलत है तो। जो सिस्टम आज देशीय/राष्ट्रीय है वह कल अंतर-राष्ट्रीय हो जाएगा; पर जब तक मानवजाति आदिम प्रवृत्तियों और सामूहिक आवेग/जूनून की पूजा करना नहीं छोड़ेगी, तब तक हर नयी प्रणाली सिर्फ नए तरीके से दुःख और तकलीफ़ देने का माध्यम ही बनेगी, उससे ज़्यादा कुछ नहीं! और क्योंकि हममें अच्छी प्रणालियों और सिस्टम्स को नैतिक शुचिता से उलझा देने की अप्रतिम क्षमता है, हर बार एक नया ख़राब हुआ सिस्टम हममें नैतिक मूल्यों के प्रति अविश्वास और दुराग्रह भर देता है।
इसलिए मैं अपना विश्वास किसी भी नए सिस्टम या नयी प्रणाली में नहीं रख कर, उन करोड़ों मानसिक रूप से समर्थ और परिपक्कव व्यक्तियों में रखूँगा जो साफ़ और सरल सोच सकते हैं, भले मानस हैं, सही करते हैं और अपने व्यवहार से शाश्वत और नैतिक सत्य के संरक्षक हैं। हमारे नैतिक आदर्शों को छैनी-हथौड़े नहीं चाहिए, वे तो पेड़ों की तरह ज़मीन में अपनी जेड जमाएंगे तभी आसमान में उनकी शाखाएं पहुँचेंगी - बिना किसी की भी सलाह लिए!
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The original article (essay) was printed on Scroll.in Excerpted with permission from “The Nation” by Rabindranath Tagore,Patriots, Poets and Prisoners: Selections from Ramananda Chatterjee’s The Modern Review 1907-1947, edited by Anikendra Sen, Devangshu Dutta and Nilanjana Roy, introduced by Ramachandra Guha, HarperCollins India.
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